Wednesday, October 7, 2009
पतकार की चड्डी भी किसी पत्रकार के पूरे शरीर के कपडों से महँगी होती है
एक वैधानिक चेतावनी और इतने सरे बापों को पाकर मेरा सांड लेख अब आगे बढ़ता है. चलिए… इस बार आप को पत्रकार के “प्रकार” बताते हैं. वाह!!! सुनने और सुनाने में भी अच्छा लगता है. आँख बंद करके… पांच बार बोलिए…
पत्रकार के प्रकार....
भई, अरे बोलिए… इसके बाद आगे पढियेगा...
क्या हो जाता है...
मिला जवाब…?
हो जाता है ना सब उल्टा पुल्टा... तो भई, पत्रकार के दोनों प्रकार उल्टा पलटा ही है. जी हाँ… पत्रकार के दो प्रकार हैं…
पहला -- जो पत्रकार है.
दूसरा -- पत(न)कार है.
अंतर वर्तनी में सिर्फ “त” और “त्र” का ही नहीं है. देखने में दोनों शब्द एक जैसे ही हैं. वैसे ही पतकार, पत्रकार की वेश भूषा में दिखता है. तब दोनों एक जैसे दिखते हैं.
पत्रकार-- अंतर “त” और “त्र” में
पत्रकार के “त्र” से त्रस्त होते हैं…
कौन?
नेता, अभिनेता, व्यापारी, समाज का हर वो शख्स जो सिर्फ अपने बारे में सोचता है और करता है. यहाँ तक कि संपादक, मालिक, उसके तथाकथित और सहयोगी भी त्रस्त होते हैं, पत्रकार से. कुर्ता पायजामा और श्रीलेदर की चप्पल पहने वो शख्स किसी भी जगह आपको दिख सकता है. चश्मा और लिंक की 5 रुपैये वाली पेन उसके प्रमुख हथियार हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस में मिलने वाला खाने का पैकेट वो सबसे नज़रें बचाकर अपने अख़बार से मिले खादी के झोले में धीरे से सरका देता है. बाद में वो पैकेट अपने बच्चों को देता है, अगर शादी शुदा हुआ तो. “अगर शादी शुदा हुआ तो” कहने का मतलब ये है कि इनकी शादी नहीं होती या यूँ कहे कि इनसे कोई शादी नहीं करता. भारतीय राजनीति के मौजूदा सोच और स्वरुप पर ये कई पन्ने लिख या बोल सकते है बिना रुके… विवेकानंद, सरदार पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, जय प्रकाश नारायण जैसे लोग इनके आदर्श होते हैं. वामपंथी तो ये होते ही हैं… मार्क्स और लेनिन इनके लेखों में अक्सर आते जाते रहते हैं. खबरों की तह तक जाने की इनकी बीमारी होती है. बिना डरे ये किसी के बारे में लिख या बोल देते हैं. बाद में लात भी खाते हैं और जंतर-मंतर के सामने अपने दो-चार पत्रकार बंधुओं के साथ धरने पे बैठ जाते हैं. कोई भी लालच इन्हें सुधार नहीं सकता. माना कि लतखोरी इनमें कूट-कूट कर सत्य की तरह भरी होती है. दिखने में ये निरीह मनुष्य तिलचट्टे की तरह कठोर होते हैं. जो भष्टाचार रुपी एटम बम से भी बच जाते हैं. वैसे अब ये लुप्तप्राय प्रजाति हैं. कहीं कहीं पाए जाते हैं. अखबार के दफ्तर के बाहर चाय की दूकान पर व्यवस्था को गरियाते इन्हें देखा जा सकता है. “इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इसे कचरा कहा जाता है”. और अगर गलती से आ भी जाये तो ये डेंजरसली लो यानि लो वेस्ट जींस और डीप डाउन टॉप पहनने वाली बॉब कट महिला कर्मचारियों की संगत में आकर सुधर जाते हैं. या फिर टिक्कीधारी ये पत्रकार टीकर लिखने जैसे बेहद मामूली काम में लगा दिए जाते हैं. यानि एक पत्रकार की असमय मौत.
पतकार - अंतर वही “त” और “त्र” में…
पतकार के “त” का मतलब तिकड़मी होता है. इससे बड़ा तिकड़मबाज़, मानव योनी में जन्मा कोई नहीं होता है. इन्ही से चैनल की टीआरपी बनती है. अख़बार का सर्कुलेशन बढ़ता है. नेता जी चुनाव जीतते हैं. व्यापारी ऐड देता है. अभिनेता की फिल्म हिट होती है. लिवाइस की जींस, वुडलैंड का जूता और प्रोवोग की शर्ट में ये किसी भी एसयूवी से उतरते दिख जायेंगे, जिसपर प्रेस लिखा हो. रेबैन और केविन केन का चश्मा इनको बेहद पसंद है. ब्लैक बेरी और नोकिया इ सीरिज पर ये ऑफिस के इम्पोर्टेंट ईमेल चेक करते हैं. मालबोरो की सिगरेट इनकी गाड़ी के डैश बोर्ड पर हमेशा मिलेगी. सुबह 7 बजे इन्हें देखो या रात साढ़े दस बजे… ये हमेशा नहाये और साफ़ सुथरे दिखेंगे. मंहगे डीओ और हेअर जेल के बिना ये कहीं नहीं जाते है. इनसे अच्छी इंग्लिश सिर्फ NRI ही बोल सकते हैं… भले ही ये हिंदी चैनल में काम करें... यहाँ तक कि पानी भी मांगते हैं तो सिर्फ इंग्लिश में.
पतकार की चड्ढी भी किसी पत्रकार के पूरे शरीर के कपडों से महँगी होती है. और हाँ… ये अपने आप को जर्नलिस्ट कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं. विजय माल्या, अनिल अम्बानी, अमर सिंह जैसे लोग इनके आदर्श होते है. ये काफी फ्लैग्जिबल होते है… “विचारधारा” में. या यूँ कहें कि मनीधारा के आगे इनको कोई धारा पसंद नहीं.
संस्कार, मूल्य, भावना, देशहित जैसी कबाड़ चीज़ों को ये नहीं ढ़ोते. ये महिला और पुरुष को समान नज़र से देखते हैं. और उनसे मधुर सम्बन्ध स्थापित करते हैं. महंगे फाइव स्टार बार में ये अक्सर पाए जाते हैं. फिल्म सिटी में रात को गुप्ता जी के ठेले और चाइनीज गाड़ी के बीच पार्किंग लॉट में ठेले से लिए गिलास और पीनट्स के साथ ये रात की शुरुआत करते हैं. इनके शब्दों में “मूड मेकिंग”. और हाँ… ये इंटर्नस से बड़े प्यार से मिलते हैं. उनको अपना विजिटिंग कार्ड देकर कॉल करने को जरूर कहते हैं. अगर कॉल आ गया और इन्टर्न समझदार “हुआ” या “हुई” तो फिर वहीं गुप्ता जी के ठेले और चाइनीज गाड़ी के बीच का पार्किंग लॉट, जर्नलिस्ट की एसयूवी, चाइनीज विंडो से आया चिकन मंचूरियन, ठेला का प्लास्टिक गिलास, सॉल्टेड पीनट्स और इन्टर्न... जर्नलिस्ट की ये अँधेरी मगर रंगीन रात, इन्टर्न के लिए सुनहरी सुबह लेकर आती है.
और फिर एक पत्रकार के जन्म से पहले ही उसे बछडे की तरह बधिया कर सांड से बैल बना दिया जाता है यानि “पतकार”. ये बधिया करने का ही नतीजा है कि पत्रकार के “त्र” में लटकने वाला डंडा उखड़कर “त” बन जाता है और पत्रकार हो जाता है पत(न)कार....
पतकार की चड्डी भी किसी पत्रकार के पूरे शरीर के कपडों से महँगी होती है
“सीधे फिल्म सिटी से” अंक - 6
एक वैधानिक चेतावनी और इतने सरे बापों को पाकर मेरा सांड लेख अब आगे बढ़ता है. चलिए… इस बार आप को पत्रकार के “प्रकार” बताते हैं. वाह!!! सुनने और सुनाने में भी अच्छा लगता है. आँख बंद करके… पांच बार बोलिए…
पत्रकार के प्रकार....
भई, अरे बोलिए… इसके बाद आगे पढियेगा...
क्या हो जाता है...
मिला जवाब…?
हो जाता है ना सब उल्टा पुल्टा... तो भई, पत्रकार के दोनों प्रकार उल्टा पलटा ही है. जी हाँ… पत्रकार के दो प्रकार हैं…
पहला -- जो पत्रकार है.
दूसरा -- पत(न)कार है.
अंतर वर्तनी में सिर्फ “त” और “त्र” का ही नहीं है. देखने में दोनों शब्द एक जैसे ही हैं. वैसे ही पतकार, पत्रकार की वेश भूषा में दिखता है. तब दोनों एक जैसे दिखते हैं.
पत्रकार-- अंतर “त” और “त्र” में
पत्रकार के “त्र” से त्रस्त होते हैं…
कौन?
नेता, अभिनेता, व्यापारी, समाज का हर वो शख्स जो सिर्फ अपने बारे में सोचता है और करता है. यहाँ तक कि संपादक, मालिक, उसके तथाकथित और सहयोगी भी त्रस्त होते हैं, पत्रकार से. कुर्ता पायजामा और श्रीलेदर की चप्पल पहने वो शख्स किसी भी जगह आपको दिख सकता है. चश्मा और लिंक की 5 रुपैये वाली पेन उसके प्रमुख हथियार हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस में मिलने वाला खाने का पैकेट वो सबसे नज़रें बचाकर अपने अख़बार से मिले खादी के झोले में धीरे से सरका देता है. बाद में वो पैकेट अपने बच्चों को देता है, अगर शादी शुदा हुआ तो. “अगर शादी शुदा हुआ तो” कहने का मतलब ये है कि इनकी शादी नहीं होती या यूँ कहे कि इनसे कोई शादी नहीं करता. भारतीय राजनीति के मौजूदा सोच और स्वरुप पर ये कई पन्ने लिख या बोल सकते है बिना रुके… विवेकानंद, सरदार पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, जय प्रकाश नारायण जैसे लोग इनके आदर्श होते हैं. वामपंथी तो ये होते ही हैं… मार्क्स और लेनिन इनके लेखों में अक्सर आते जाते रहते हैं. खबरों की तह तक जाने की इनकी बीमारी होती है. बिना डरे ये किसी के बारे में लिख या बोल देते हैं. बाद में लात भी खाते हैं और जंतर-मंतर के सामने अपने दो-चार पत्रकार बंधुओं के साथ धरने पे बैठ जाते हैं. कोई भी लालच इन्हें सुधार नहीं सकता. माना कि लतखोरी इनमें कूट-कूट कर सत्य की तरह भरी होती है. दिखने में ये निरीह मनुष्य तिलचट्टे की तरह कठोर होते हैं. जो भष्टाचार रुपी एटम बम से भी बच जाते हैं. वैसे अब ये लुप्तप्राय प्रजाति हैं. कहीं कहीं पाए जाते हैं. अखबार के दफ्तर के बाहर चाय की दूकान पर व्यवस्था को गरियाते इन्हें देखा जा सकता है. “इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इसे कचरा कहा जाता है”. और अगर गलती से आ भी जाये तो ये डेंजरसली लो यानि लो वेस्ट जींस और डीप डाउन टॉप पहनने वाली बॉब कट महिला कर्मचारियों की संगत में आकर सुधर जाते हैं. या फिर टिक्कीधारी ये पत्रकार टीकर लिखने जैसे बेहद मामूली काम में लगा दिए जाते हैं. यानि एक पत्रकार की असमय मौत.
पतकार - अंतर वही “त” और “त्र” में…
पतकार के “त” का मतलब तिकड़मी होता है. इससे बड़ा तिकड़मबाज़, मानव योनी में जन्मा कोई नहीं होता है. इन्ही से चैनल की टीआरपी बनती है. अख़बार का सर्कुलेशन बढ़ता है. नेता जी चुनाव जीतते हैं. व्यापारी ऐड देता है. अभिनेता की फिल्म हिट होती है. लिवाइस की जींस, वुडलैंड का जूता और प्रोवोग की शर्ट में ये किसी भी एसयूवी से उतरते दिख जायेंगे, जिसपर प्रेस लिखा हो. रेबैन और केविन केन का चश्मा इनको बेहद पसंद है. ब्लैक बेरी और नोकिया इ सीरिज पर ये ऑफिस के इम्पोर्टेंट ईमेल चेक करते हैं. मालबोरो की सिगरेट इनकी गाड़ी के डैश बोर्ड पर हमेशा मिलेगी. सुबह 7 बजे इन्हें देखो या रात साढ़े दस बजे… ये हमेशा नहाये और साफ़ सुथरे दिखेंगे. मंहगे डीओ और हेअर जेल के बिना ये कहीं नहीं जाते है. इनसे अच्छी इंग्लिश सिर्फ NRI ही बोल सकते हैं… भले ही ये हिंदी चैनल में काम करें... यहाँ तक कि पानी भी मांगते हैं तो सिर्फ इंग्लिश में.
पतकार की चड्ढी भी किसी पत्रकार के पूरे शरीर के कपडों से महँगी होती है. और हाँ… ये अपने आप को जर्नलिस्ट कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं. विजय माल्या, अनिल अम्बानी, अमर सिंह जैसे लोग इनके आदर्श होते है. ये काफी फ्लैग्जिबल होते है… “विचारधारा” में. या यूँ कहें कि मनीधारा के आगे इनको कोई धारा पसंद नहीं.
संस्कार, मूल्य, भावना, देशहित जैसी कबाड़ चीज़ों को ये नहीं ढ़ोते. ये महिला और पुरुष को समान नज़र से देखते हैं. और उनसे मधुर सम्बन्ध स्थापित करते हैं. महंगे फाइव स्टार बार में ये अक्सर पाए जाते हैं. फिल्म सिटी में रात को गुप्ता जी के ठेले और चाइनीज गाड़ी के बीच पार्किंग लॉट में ठेले से लिए गिलास और पीनट्स के साथ ये रात की शुरुआत करते हैं. इनके शब्दों में “मूड मेकिंग”. और हाँ… ये इंटर्नस से बड़े प्यार से मिलते हैं. उनको अपना विजिटिंग कार्ड देकर कॉल करने को जरूर कहते हैं. अगर कॉल आ गया और इन्टर्न समझदार “हुआ” या “हुई” तो फिर वहीं गुप्ता जी के ठेले और चाइनीज गाड़ी के बीच का पार्किंग लॉट, जर्नलिस्ट की एसयूवी, चाइनीज विंडो से आया चिकन मंचूरियन, ठेला का प्लास्टिक गिलास, सॉल्टेड पीनट्स और इन्टर्न... जर्नलिस्ट की ये अँधेरी मगर रंगीन रात, इन्टर्न के लिए सुनहरी सुबह लेकर आती है.
और फिर एक पत्रकार के जन्म से पहले ही उसे बछडे की तरह बधिया कर सांड से बैल बना दिया जाता है यानि “पतकार”. ये बधिया करने का ही नतीजा है कि पत्रकार के “त्र” में लटकने वाला डंडा उखड़कर “त” बन जाता है और पत्रकार हो जाता है पत(न)कार....
3 comments:
- kshama said...
-
वैसे अब ये लुप्तप्राय प्रजाति हैं. कहीं कहीं पाए जाते हैं.
Jiska warnan aapne kiya hai, waisi prajati har kshetr se lupt ho rahi hai.. - April 21, 2010 at 10:58 PM
- Sarita Chaturvedi said...
-
KOI TO BATALE KI WO JUNUN KA DAUR LAUTEGA BHI YA NAHI. YE BHI ANDAJE SUKU HO JAYE KI PATANKAR PATRKAR PHIR SE BAN PAYEGA BHI YA NAHI.
- May 4, 2010 at 5:31 PM
- डॉ .अनुराग said...
-
सही जा रहे हो भाई........विनीत कुमार को पढ़ते हो ? यदि नहीं तो पढना आपकी तरह वे भी बगावती तेवर रखते है
- September 16, 2011 at 6:44 PM
About Me
- कुमार संभव
- Ranchi, Kolkatta, New Delhi, India
- मै एक सधारण परिवार से आता हूँ. पांच वर्षों से पत्रकारिता सीख और कर रहा हूँ...बहूत कुछ कहना और सुनना चाहता हूँ... रांची से स्कूलिंग फिर कोलकाता से मॉस कम्युनिकेशन मे स्नातक और कोलकाता फिल्म और टेलिविज़न इंस्टिट्यूट से डिप्लोमा के बाद फिलहाल एक निजी चैनल से जुडा हुआ हूँ.
Followers
Blog Archive
मेरे पसंदीदा ब्लोग्स
-
जन्मपार का इंतज़ार - वक़्त को बरतने की तरतीब पिछले कुछ सालों में कितनी तेज़ी से बदली है। हमारे पास एक ज़माने में कितना सब्र होता था। कितनी फ़ुरसत होती थी। हम लंबी चिट्ठियाँ लिख...1 week ago
-
तुम्हारा दिसंबर खुदा ! - मुझे तुम्हारी सोहबत पसंद थी ,तुम्हारी आँखे ,तुम्हारा काजल तुम्हारे माथे पर बिंदी,और तुम्हारी उजली हंसी। हम अक्सर वक़्त साथ गुजारते ,अक्सर इसलिए के, हम दोनो...4 years ago
-
Ebook Free Von Punkt zu Punkt - 1 bis 60. Malbuch ab 5 Jahre, by Vicky Bo - Ebook Free Von Punkt zu Punkt - 1 bis 60. Malbuch ab 5 Jahre, by Vicky Bo Auffinden dieser Von Punkt Zu Punkt - 1 Bis 60. Malbuch Ab 5 Jahre, By Vicky Bo a...5 years ago
-
मोदी की सबसे बड़ी चुनौती - मेरा लेख पढ़ें http://abpnews.newsbullet.in/blogtest/74/5474211 years ago
-
.... तो ये प्रियभांशुओं के पीछे बंदूक लेकर दौड़े - आरा के एक गाँव की बात है । तक़रीबन १०-१२ साल पहले की। राजपूत परिवार की एक बेटी जो आरा में रह कर पढाई करती थी उसने अपने एक साथी के साथ भाग कर शादी कर ली... ...14 years ago
-
चंचल बयार.... - एक चंचल बयारों सा मुझको मिला वो जैसे सहरा में पानी का दरिया हँसा हो.... बिलखते दरख्तों की मुस्कान बन कर मुहब्बत की बारिश को बरसा गया वो.... मुफ़लिस से जीवन म...15 years ago
-
-
3 comments:
वैसे अब ये लुप्तप्राय प्रजाति हैं. कहीं कहीं पाए जाते हैं.
Jiska warnan aapne kiya hai, waisi prajati har kshetr se lupt ho rahi hai..
KOI TO BATALE KI WO JUNUN KA DAUR LAUTEGA BHI YA NAHI. YE BHI ANDAJE SUKU HO JAYE KI PATANKAR PATRKAR PHIR SE BAN PAYEGA BHI YA NAHI.
सही जा रहे हो भाई........विनीत कुमार को पढ़ते हो ? यदि नहीं तो पढना आपकी तरह वे भी बगावती तेवर रखते है
Post a Comment